आशिक़-ए-सोख़्ता-दिल ख़त्त-ए-सनम दोनों एक जिस तरह सुनिए जुदा शादी-ओ-ग़म दोनों एक दोनों बातिन में अगर एक हैं लेकिन कोई आब-ओ-आतिश नहीं रखता है बहम दोनों एक है जुदा सज्दे की जा हिन्दू मुसलमाँ की मगर फ़हम वालों के तईं दैर-ओ-हरम दोनों एक कुहल करते हैं हम आँखों में बराबर दोनो सुरमा-ए-कोर को और ख़ाक-ए-क़दम दोनों एक जब फँसा ज़ुल्फ़ में जा दिल न रहा नंग-ओ-हया ताक़ पर रखिए वहाँ नंग-ओ-शरम दोनों एक बार-ए-ग़म हिज्र पड़ा सर पे किसी के उस दम ख़ाक में दीजे मिला अक़ल-ओ-फ़हम दोनों एक एवज़-ए-हिज्र न लूँ ऐश तमाम आलम का है अज़ल से मुझे फ़रमान-ए-हकम दोनों एक दिल में अरमाँ न रहा बाक़ी जो चाहा सो किया सैर दुनिया की भी और सैर-ए-अदम दोनों एक यार आग़ोश में अपने है मुहय्या हर-दम बस है ये मेरे तईं जाह-ओ-हशम दोनों एक आरज़ू 'क़ासिम-अली' दिल में नहीं कुछ लेकिन चाहिए अपने तईं फ़ज़्ल-ओ-करम दोनों एक