आशिक़ के लिए हिज्र का आज़ार कहाँ तक दुख सहता रहे आप का बीमार कहाँ तक आख़िर ये सितम चर्ख़-ए-जफ़ाकार कहाँ तक झेले मरज़-ए-हिज्र दिल-ए-ज़ार कहाँ तक हो जाए लब-ए-बाम से अब जल्वा-नुमाई बैठा रहूँ आख़िर पस-ए-दीवार कहाँ तक देखूँ जो कभी आओ सू-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ जी उठते हैं मुर्दे दम-ए-रफ़्तार कहाँ तक आता नहीं अब कोई अयादत को भी ऐ दिल बहलाते भला बैठ के ग़म-ख़्वार कहाँ तक सज्दे ही की ख़ू डालूँ कि मक़्बूल हो ख़िदमत बैठा रहूँ दर पर तिरे बेकार कहाँ तक करना न 'हक़ीर' आबला-पाई की शिकायत देखो तो रह-ए-इश्क़ है दुश्वार कहाँ तक