आसमाँ पर बने थे चेहरे से लोग याद आए भूले-बिसरे से कितने सूरज ज़मीन में सोए नूर फूटेगा ज़र्रे ज़र्रे से आँख में आ गया है इक आँसू दश्त सैराब एक क़तरे से सब्ज़-मौसम है सहन में लेकिन ज़र्द-रुत झाँकती है कमरे से उम्र कितनी भी हो मगर शोहरत बाज़ आती कहाँ है नख़रे से ग़म भी दरवेश हो गया 'फ़ारूक़' कम निकलता है अपने हुजरे से