आसमाँ उस के लिए और ज़मीं उस के साथ शहर का चल दिया हर एक हसीं उस के साथ बस यही सोच के मैं भूकी रही कितने दिन होगी इक दावत-ए-शीराज़ कहीं उस के साथ नाव को चार तरफ़ घेरे खड़े थे गिर्दाब ये मगर फ़ैसला मेरा था नहीं उस के साथ कैसे मैं ख़ाली करा सकती थी ये दिल अपना घर के दीवार-ओ-दर-ओ-अक्स-ओ-मकीं उस के साथ वो जो इक पैर तले शख़्स है भूका प्यासा बोरिया मेरा लगा दीजो वहीं उस के साथ उस की फ़ीरोज़ा-निगाही में अजब जादू है रंग तब्दील करे चश्म-ए-नगीं उस के साथ दूर आकाश पे रौशन रहे हुस्न-ए-महताब अपनी 'रख़्शंदा' मुनव्वर है जबीं उस के साथ