आँसू थमे जो रुख़ पे वो गेसू बिखर गया मिलते ही दोनों वक़्त के दरिया ठहर गया अच्छा हुआ शबाब का आलम गुज़र गया इक जिन चढ़ा हुआ मिरे सर से उतर गया यार आ के ख़्वाब में मुझे शर्मिंदा कर गया क्या सख़्त जान था कि न फ़ुर्क़त में मर गया उश्शाक़ कम-सिनी से वो कम-सिन हबाब-वार जोबन ने जब कुचों को उभारा उभर गया ऐ हम-सफ़ीर बाल-फ़िशानी का ज़िक्र किया तोला जो बाज़ुओं को परों को कतर गया लौह-ए-मज़ार भी जो बनाई वो संग-दिल पत्थर की सिल तराश के छाती पे धर गया मरने पे क़ब्र भी जो खुदी मोहर की तरह मैं बे-निशान मिस्ल-ए-नगीं नाम कर गया बिगड़ा बनाओ कर के जो वो बुत रक़ीब से फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से काम हमारा सँवर गया क्या आबदारी-ए-दम-ए-ख़ंजर बयाँ करूँ पानी का घूँट था कि गले से उतर गया सुनते हैं जान हिज्र में ‘अर्श’-ए-हज़ीं ने दी भूका विसाल-ए-यार का कुछ खा के मर गया