आसूदगान-ए-हिज्र से मिलने की चाह में कोई फ़क़ीर बैठा है सहरा की राह में फिर यूँ हुआ कि शौक़ से खोली न मैं ने आँख इक ख़्वाब आ गया था मिरी ख़्वाब-गाह में इस बार कितनी देर यहाँ हूँ ख़बर नहीं आ तो गया हूँ फिर से तिरी बारगाह में फिर कार-ए-ज़िंदगी ने मुझे छोड़ना नहीं कुछ दिन यहीं गुज़ार लूँ अपनी पनाह में यारों ने आ के जान बचाई मिरी कि मैं ख़ुद से उलझ पड़ा था यूँही ख़्वाह-मख़ाह मैं