आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था दरिया जो मुंजमिद है कभी मौजज़न भी था मैं अपनी ख़्वाहिशों से वफ़ादार था सो हूँ ग़म वर्ना दिल-ख़राश भी ख़्वाहिश-शिकन भी था काले ख़मोश पानी को एहसास तक नहीं चेहरे पे मरने वाले के इक बाँकपन भी था किस तरह महर ओ माह को करते अलग 'फ़ुज़ैल' शोला-नफ़स जो था वही गुल-पैरहन भी था