आवाज़ के पत्थर जो कभी घर में गिरे हैं आसेब ख़मोशी के 'सबा' चीख़ पड़े हैं पाज़ेब के नग़्मों की वो रुत बीत चुकी है अब सूखे हुए पत्ते इस आँगन में पड़े हैं छुप जाएँ कहीं आ कि बहुत तेज़ है बारिश ये मेरे तिरे जिस्म तो मिट्टी के बने हैं इस दिल की हरी शाख़ पे जो फूल खिले थे लम्हों की हथेली पे वो मुरझा के गिरे हैं इस घर में किसे देते हो अब जा के सदाएँ वो हारे थके लोग तो अब सो भी चुके हैं