आया कभी ख़याल तो दिल से लिपट गया कैसे समा के फिर कोई जीवन से हट गया पुर्वा चली थी गाँठ को आँचल से बाँधने दामन घटा का हाथ में आते ही फट गया बैठे हैं शाम ओढ़ के तन्हाइयों में हम इक हंस अपनी डार से जैसे हो कट गया बदला नगर ने बाढ़ का मुँह अपनी सम्त से नदिया में बह के गाँव का छोटा सा तट गया झोंका सा था क्या चुलबुला परियों के देश का बरसों की साधना का वो आसन उलट गया भूले से आया मेघ कभी धूप के नगर मन-मोर नाचने से वो पहले ही छट गया तलवारें मंदिरों से निकल कर झपट पड़ीं सदियों पुराना सर का चमकता मुकट गया