आया नहीं वो जौर का ख़ूगर तमाम रात तड़पा किया मिरा दिल-ए-मुज़्तर तमाम रात नींद उस के हुस्न-ए-रुख़ के तसव्वुर में आई थी देखा है बर्क़-ए-तूर का मंज़र तमाम रात ये राज़ मुझ पे शम्अ' के अंजाम से खुला कटती है हिज्र-ए-यार में क्यूँकर तमाम रात ऐ हम-नफ़स न पूछ शब-ए-हिज्र का अज़ाब आँखों में काटनी पड़ी अक्सर तमाम रात इक हम न उन की याद में झपका सके पलक इक वो कि महव-ए-बादा-ओ-साग़र तमाम रात वक़्त-ए-सहर ये जाना कि जागे हैं हम मगर सोता रहा हमारा मुक़द्दर तमाम रात सींचा है आँसुओं से बहुत नख़्ल-ए-आरज़ू लेकिन समर न आ सका 'जौहर' तमाम रात