अब आफ़्ताब-ए-मुनव्वर पे क़ुर्ब-ए-शाम हुआ इक और साल मिरी उम्र का तमाम हुआ रगों में गर्दिश-ए-ख़ूँ का ग़ुलाम ठहरा है न उस बदन का कभी मुझ से एहतिराम हुआ मिरे चहार-तरफ़ है हिसार-ए-महरूमी तमाम-उम्र कटी और न कोई काम हुआ कोई ज़मीन न दलदल न आसमान है अब कहाँ पहुँच के मिरी रह का इख़्तिताम हुआ अजब लतीफ़ सी तेज़ाबियत थी लहजे में बड़े ख़ुलूस से जिस दम वो हम-कलाम हुआ सुना है रात फ़रिश्ते छुपे थे मा'बद में हमारे शहर में फिर आज क़त्ल-ए-आम हुआ हज़ार क़त्ल के बदले में ये सआ'दत है कि एक शख़्स किसी क़ौम का इमाम हुआ