अब अधूरे इश्क़ की तकमील ही मुमकिन नहीं क्या करें पैग़ाम की तर्सील ही मुमकिन नहीं क्या उसे समझाऊँ काग़ज़ पर लकीरें खींच कर जज़्बा-ए-बेनाम की तश्कील ही मुमकिन नहीं ऐसे मौसम में भी शरह-ए-दिल किए जाता हूँ मैं जब कि इस इज्माल की तफ़्सील ही मुमकिन नहीं किस जगह उँगली रखूँ किस हर्फ़ को कैसे पढ़ूँ आयत-ए-इम्काँ तिरी तरतील ही मुमकिन नहीं तोहमत-ए-रुस्वाई कैसे इश्क़ पर रखता कोई ऐसे कामों में तो ऐसी ढील ही मुमकिन नहीं कुंज-ए-निस्याँ में पड़े धुँदला गए उस के नुक़ूश अब तो उस ख़ुश-रंग की तमसील ही मुमकिन नहीं और भी कुछ सूरतें बन जाएँगी रुस्वाई की इश्क़ में 'ताबिश' फ़क़त तज़लील ही मुमकिन नहीं