अब अहल-ए-दिल हैं कि नायाब होते जाते हैं ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब होते जाते हैं तुम्हारे आने से कुछ इज़्तिराब कम होता ये क्या कि और भी बेताब होते जाते हैं सुकूँ-मआब समझते थे जिन किनारों को सिमट के हल्क़ा-ए-गिर्दाब होते जाते हैं हमें भी रात को दिन कहना आता जाता है कि हम भी हामिल-ए-आदाब होते जाते हैं हमें मिले न मिले ज़िंदगी मगर 'निकहत' सुना है ज़ीस्त के अस्बाब होते जाते हैं