अब और चलने का इस दिल में हौसला ही न था कि शहर-ए-शब में उजाले का शाइबा ही न था मैं उस गली में गया ले के ज़ोम-ए-रुस्वाई मगर मुझे तो वहाँ कोई जानता ही न था गुदाज़-ए-जाँ से लिया मैं ने फिर ग़ज़ल का सुराग़ कि ये चराग़ तो जैसे कभी बुझा ही न था कोई पुकारे किसी को तो ख़ुद ही खो जाए हुआ तो है मगर ऐसा कभी सुना ही न था किसे कहें कि रिफ़ाक़त का दाग़ है दिल पर बिछड़ने वाला तो खुल कर कभी मिला ही न था मुसाफ़िरों को कई वाहिमे सताते हैं ठहरते क्या कि दरीचों में तो दिया ही न था दमक उठा था वो चेहरा हया की चादर में कि जैसे जुर्म-ए-वफ़ा उस का मुद्दआ ही न था हमारे हाथ फ़क़त रेत के सदफ़ आए कि साहिलों पे सितारा कोई रहा ही न था