अब चाँद नहीं कोई सितारा नहीं कोई शब इतनी अँधेरी है कि निकला नहीं कोई हर-चंद नज़र आती है दीवार-ए-तमन्ना चाहें कि ठहर जाएँ तो साया नहीं कोई चेहरों को ये ग़म है कोई आईना नहीं है आईना तरसता है कि चेहरा नहीं कोई जिस से भी मिलो देख के रह जाता है मुँह को ऐसा भी नहीं है कि शनासा नहीं कोई अरमान तुम्हें फ़स्ल-ए-गुलिस्ताँ का है 'फ़ाख़िर' शाख़ों पे यहाँ फूल तो खिलता नहीं कोई