अब ग़म का कोई ग़म न ख़ुशी की ख़ुशी मुझे आख़िर को रास आ ही गई ज़िंदगी मुझे वो क़त्ल कर के मुझ को पशेमाँ हुए तो क्या लौटा सकेंगे फिर न मिरी ज़िंदगी मुझे सारे जहाँ में होती है अम्न-ओ-अमाँ की बात लेकिन नज़र न आई कहीं आश्ती मुझे नेज़ा उठाए फिरती है हर राह में क़ज़ा हर मोड़ पर हिरास मिली ज़िंदगी मुझे मैं घूँट घूँट जाम से बहलाऊँ जी को क्या बे-ख़ौफ़ काश कर ही दे तिश्ना-लबी मुझे इक लज़्ज़त-ए-गुनाह थी क्या लज़्ज़त-ए-गुनाह ता-उम्र रास आई न फिर बंदगी मुझे कुछ आरज़ू नहीं कि फ़रिश्ता बनूँ 'अनीस' काफ़ी है हाँ जो लोग कहें आदमी मुझे