अब इस से मिलने की उम्मीद क्या गुमाँ भी नहीं ज़मीं गई तो गई सर पे आसमाँ भी नहीं बुझा बुझा सा है दिल का अलाव बरसों से किसी की याद का आँखों में अब धुआँ भी नहीं नई सदी के सफ़र में भी हम अकेले हैं हवा के दोष पे ख़ुशबू का कारवाँ भी नहीं तुम्हीं बताओ यहाँ किस तरह जिएँ हम लोग तुम्हारे शहर में ग़ज़लों की इक दुकाँ भी नहीं घरों में सहम के बैठे हुए हैं सब बच्चे समुंदरों पे कहीं रेत का मकाँ भी नहीं इस एहतियात से आँखों में कौन आया था सुबूत के लिए पलकों पे इक निशाँ भी नहीं इक ऐसे राज़ की मानिंद जी रहा हूँ 'शकील' कि जिस का मेरे सिवा कोई राज़-दाँ भी नहीं