अब इस तरह सितम-ए-रोज़गार होता है क़फ़स के सामने ज़िक्र-ए-बहार होता है ख़ुदा के वास्ते दामन का चाक सीने दो कभी कभी तो जुनूँ होशियार होता है वफ़ा का ज़िक्र ही क्यूँ छेड़ते हैं अहल-ए-वफ़ा जब उन की ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार होता है वो सामने हों तो आँसू निकल ही जाते हैं ये जुर्म वो है जो बे-इख़्तियार होता है मैं मुतमइन हूँ अगरचे ख़राब है माहौल ख़िज़ाँ के बा'द का आलम बहार होता है