अब कहाँ दर्द जिस्म-ओ-जान में है दफ़्न है दिल बदन दुकान में है दिन ढले रोज़ यूँ लगे जैसे कोई मुझसा मिरे मकान में है दिल का कुछ भी पता नहीं चलता हाथ में है कि आसमान में है छाँव के पल जला दिए सारे उफ़ वो सूरज जो साएबान में है क्यूँ न तश्बीह फूल हो उस की वो जो ख़ुशबू सा दास्तान में है इक सवाल और 'अर्श' बाक़ी है आख़िरी तीर भी कमान में है