अब के बाज़ार में ये तुर्फ़ा तमाशा देखा बेचने निकले तो यूसुफ़ का ख़रीदार न था दोस्तो रस्म-ए-मोहब्बत पे ये क्या बैत गई शहर-ए-याराँ में कोई शख़्स सर-ए-दार न था और भी लोग थे तौफ़ीक़-ए-वफ़ा रखते थे एक मैं ही तो तिरे ग़म का सज़ा-वार न था दिल के कहने पे लगा ली है वफ़ा की तोहमत वर्ना जीना तो मुझे बाइस-ए-आज़ार न था मस्लहत-केश बने बैठे हैं सब अहल-ए-वफ़ा इतना रुस्वा तो कभी इश्क़ का पिंदार न था तुझ को चाहा तो किसी और को चाहा न गया मैं तो फ़नकार था 'ग़ालिब' का तरफ़-दार न था