अब किस से कहें कि क्या हुआ था इक हश्र यहाँ बपा रहा था दस्तार कि पाँव में पड़ी थी सरदार किसी पे हंस रहा था वो शाम गुज़र गई थी आ के रंजूर उदास मैं खड़ा था दहलीज़ जकड़ रही थी पाँव पिंदार मगर उड़ा हुआ था सद शुक्र गढ़ा हुआ था क़िस्सा कम-बख़्त यक़ीन आ गया था इक बार ही आज़मा तो लेते दर बंद न था भिड़ा हुआ था शब-ख़ून में रौशनी बहुत थी था कौन जो देखता रहा था जुज़दान में आयतें छुपी थीं गुल-दान में फूल खिल रहा था इक शख़्स कि था वफ़ा का पैकर वो शख़्स भी माइल-ए-जफ़ा था दस्तूर वही था हस्ब-ए-दस्तूर इंसाफ़ का क़त्ल हो रहा था कुछ फूल खिले हुए थे घर में कुछ याद से दिल महक रहा था कुछ अश्क गिरे हुए थे ख़त पर इक लफ़्ज़ था जो मिटा हुआ था उस शाम था दिल बहुत अकेला मैं हँसते हँसते रो पड़ा था थी बात बहुत ज़रा सी 'अहमद' इस दिल को न जाने क्या हुआ था