अब मैं हूँ आप एक तमाशा बना हुआ गुज़रा ये कौन मेरी तरफ़ देखता हुआ कैफ़-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ की लज़्ज़त जिसे मिली हासिल उसे विसाल नहीं है तो क्या हुआ ख़ाशाक-ए-ज़िंदगी तो मिला उस के साथ साथ तेरा करम कि दर्द का शोला अता हुआ दर तक तिरे ख़ुदी ने न आने दिया जिसे आँखों से अश्क बन के वो सज्दा अदा हुआ शीरीनी-ए-हयात की लज़्ज़त में है कमी कुछ इस में ज़हर-ए-ग़म न अगर हो मिला हुआ कुछ कम नहीं हों लज़्ज़त-ए-फ़ुर्क़त से फ़ैज़-याब हासिल अगर विसाल नहीं है तो क्या हुआ अब इस मक़ाम पर है मिरी ज़िंदगी कि है हर दोस्त एक नासेह-ए-मुश्फ़िक़ बना हुआ ये भी ज़रा ख़याल रहे आज़िम-ए-हरम रस्ते में बुत-कदे का भी दर है खुला हुआ वो क़द्द-ए-नाज़ और वो चेहरे का हुस्न ओ रंग जैसे हो फूल शाख़ पे कोई खिला हुआ पेश-ए-नज़र थी मंज़िल-ए-जानाँ की जुस्तुजू और फिर रहा हूँ अपना पता ढूँडता हुआ कह कर तमाम रात ग़ज़ल सुब्ह के क़रीब 'आज़ाद' मिस्ल-ए-शम-ए-सहर हूँ बुझा हुआ