अब मुझ को गले लगाओ साहिब यक शब कहीं तुम भी आओ साहिब रूठा हूँ जो तुम से मैं तो मुझ को आ कर के तुम्हीं मनाओ साहिब बैठे रहो मेरे सामने तुम अज़ बहर-ए-ख़ुदा न जाओ साहिब कुछ ख़ूब नहीं ये कज-अदाई हर लहज़ा न भौं चढ़ाओ साहिब रखते नहीं पर्दा ग़ैर से तुम झूटी क़स्में न खाओ साहिब दर-गुज़रे हम ऐसी ज़िंदगी से इतना भी न जी जलाओ साहिब या ग़ैर की चाह भूल जाओ या दिल से हमें भुलाओ साहिब तुम वक़्त के अपने हो मसीहा मुर्दे के तईं जिलाओ साहिब मियाँ-'मुसहफ़ी' यार आ मिलेगा इतना भी न तिलमिलाओ साहिब