अब सोचता हूँ जाऊँ तो जाऊँ किधर को मैं ऐ काश छोड़ता न तिरी रहगुज़र को मैं दिल ग़म का आइना है नज़र दिल का आइना कैसे छुपाऊँ सोज़-ए-निहाँ के असर को मैं आलम तमाम एक फ़रेब-ए-निगाह है अब क्या दिखाऊँ चश्म-ए-हक़ीक़त-निगर को मैं मदहोशियों में टूट गया दिल का आइना अब कैसे मुँह दिखाऊँगा आईना-गर को मैं उन की नज़र ख़ुदा न करे मुन्फ़इल हो 'कैफ़' देखूँ न काश जज़्बा-ए-ग़म के असर को मैं