अब तो बोसीदा हो चले हैं हम टूटने फूटने लगे हैं हम ज़ख़्म-ए-दिल की कसक छुपाने को जिस्म पर घाव चाहते हैं हम अब नहीं फ़िक्र-ए-सूद रंज-ए-ज़ियाँ ख़्वार होना था हो चुके हैं हम अब सभी कुछ हमें गवारा है हाए कितने बदल गए हैं हम हम से दामन बचा के चलती है ऐ सबा तुझ को जानते हैं हम राहबर के बग़ैर ही 'अहसन' नई राहों पे चल सके हैं हम