अब तो यूँ लब पे मिरे हर्फ़-ए-सदाक़त आए ना-गहाँ शहर पे जैसे कोई आफ़त आए मस्लहत हो गई ममनूअा शजर की सूरत लाख रोकूँ मगर उस पर ही तबीअत आए दख़्ल ख़ुशियों का मिरी ज़ीस्त में कैसे हो कि जब तेरा ग़म भी ग़म-ए-दौराँ की बदौलत आए जिस पे मैं छाप सकूँ सिक्का-ए-ख़ुद-मुख़तारी ज़िंदगी में कोई ऐसी भी तो साअत आए रात भर धोता हूँ तारों की नदी में आँखें तब कहीं जा के नज़र सुब्ह की सूरत आए बर्फ़ हालात की बन जाए न पोशाक-ए-हयात इतनी तो तेरी तमन्ना में हरारत आए वुसअत-ए-लम्हा पे रखता हूँ निगाहें 'रूही' क्यूँ न तहरीर में फ़र्दा की इबारत आए