अब उन से और तक़ाज़ा-ए-बादा क्या करता जो मिल गया है मैं उस से ज़ियादा क्या करता भला हुआ कि तिरे रास्ते की ख़ाक हुआ मैं ये तवील सफ़र पा-पियादा क्या करता मुसाफ़िरों की तो ख़ैर अपनी अपनी मंज़िल थी तिरी गली को न जाता तो जादा क्या करता तुझे तो घेरे ही रहते हैं रंग रंग के लोग तिरे हुज़ूर मिरा हर्फ़-ए-सादा क्या करता बस एक चेहरा किताबी नज़र में है 'नासिर' किसी किताब से मैं इस्तिफ़ादा क्या करता