अब वो आँगन वो घर न खपरेलें पेड़ पंछी न फूल और बेलें ज़िंदगी हम तिरे मुहाफ़िज़ हैं क्यों न फिर अपनी जान पर खेलें आसमाँ से हुमकता रहता है चाँद को लाओ गोद में ले लें अपने घर की घुटन ही बेहतर है हिजरतों का अज़ाब क्यों झेलें वज़्न पर हों ग़ज़ल के सब मिसरे पीढ़ियों से न उतरीं ये रेलें क्या जराएम का सद्द-ए-बाब हुआ और आबाद हो गईं जेलें अब तो सस्ती है शाइ'री 'परवीन' लगती रहती हैं आए दिन सेलें