अब ये खुला कि इश्क़ का पिंदार कुछ नहीं दीवार गिर गई पस-ए-दीवार कुछ नहीं जिस ने समझ लिया था मुझे आसमान पर अब जानता है वो मिरा किरदार कुछ नहीं ख़ुद मुझ को ए'तिमाद नहीं अपनी ज़ात पर इंकार मेरा कुछ नहीं इक़रार कुछ नहीं वो भी समझ गया कि हवस का ये खेल है अब मदह-ए-चश्म-ओ-गेसू-ओ-रुख़्सार कुछ नहीं मिज़राब-ए-ग़म ने और भी ख़ामोश कर दिया गो खिंच गया है साज़ का हर तार कुछ नहीं मैं बोझ हूँ तो फेंक दे ऐ कुर्रा-ए-ज़मीन कुछ और तेज़ घूम ये रफ़्तार कुछ नहीं धुँदला गया है शीशा-ए-मासूमियत 'ख़याल' अब इंफ़िआल-ए-चश्म-ए-गुनहगार कुछ नहीं