लफ़्ज़ों के सहरा में क्या मा'नी के सराब दिखाना भी कोई सुख़न सहाबी कोई नग़्मा नख़लिस्ताना भी इक मुद्दत से होश-ओ-ख़बर की ख़ामोशी राइज है यहाँ काश दयार-ए-अस्र में गूँजे कोई सदा मस्ताना भी नपे-तुले आहंग पे कब तक सँभल सँभल कर रक़्स करें कोई धुन दीवानी कोई हरकत मजनूनाना भी शहर से बाहर कोहसारों के बीच ये ठहरा ठहरा दिन कितना अपना सा लगता है आज दिल-ए-बेगाना भी एक तिलिस्मी राह फ़सील-ए-तन से नवाह-ए-जाँ तक है जिस की खोज में खो जाओ तो मुमकिन है पा जाना भी आगाही माकूस सफ़र है दानिश-गाह के रस्ते का जिस का हर जाना-पहचाना मंज़र है अन-जाना भी बोल वही हैं सुर भी वही मिज़राब की जुम्बिश बदले तो यास-ओ-अलम के तारों में मुज़्मर है एक तराना भी हासिल और ला-हासिल पर अब वैसे भी किया ग़ौर करें और छलकने वाला हो जब साँसों का पैमाना भी कितनी आग कशाकश कितनी कितना तहम्मुल है दरकार 'साज़' कोई आसान नहीं है लफ़्ज़ों को पिघलाना भी