नए सिरे से फिर आज 'कैफ़ी' हम अपनी दुनिया बसा रहे हैं जो खो चुके उस से बे-ख़बर हैं जो रह गया वो लुटा रहे हैं नशात-ए-इमरोज़ की क़सम है कि दिल ने सब महफ़िलें भुला दीं दिए थे माज़ी ने दाग़ जितने वो ख़ुद-ब-ख़ुद मिटते जा रहे हैं ख़ुशा ये दौर-ए-शबाब उन का ये दिल-नवाज़ इल्तिफ़ात उन का कि बे-पिए आज हर क़दम पर मिरे क़दम लड़खड़ा रहे हैं उधर नज़र है इधर नज़र है कुछ अपनी रुस्वाइयों का डर है झिजक रहे हैं ठिठक रहे हैं मगर मिरी सम्त आ रहे हैं हया ने गो जुरअत-ए-तकल्लुम ज़बान से छीन ली है लेकिन वो आँखों आँखों ही में बहुत कुछ सुना चुके और सुना रहे हैं शबाब है और शादमानी बहार है और कामरानी बने हैं सरशारी-ए-मुजस्सम मुझे भी वो ख़ुद बना रहे हैं