अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ नशा उतरने से पहले मिरी शराब में आ धनक सी ख़्वाब सी ख़ुशबू सी फिर बरस मुझ पर नई ग़ज़ल की तरह तू मिरी किताब में आ उठा न देर तक एहसान मौसम-ए-गुल का मैं ज़िंदगी हूँ मुझे जी मिरे अज़ाब में आ वो मेरे लब के परिंदे वो तेरा झील-बदन बुझा न प्यास मिरी तू मगर सराब में आ तिरे दरीचे से है दूर मेरा दरवाज़ा अगर तू दर्द है मेरा तो दिल के बाब में आ मैं तुझ को जागती आँखों से छू सकूँ न कभी मिरी अना का भरम रख ले मेरे ख़्वाब में आ