कफ़-ए-ख़िज़ाँ पे खिला मैं इस ए'तिबार के साथ कि हर नुमू का तअल्लुक़ नहीं बहार के साथ वो एक ख़मोश परिंदा शजर के साथ रहा चहकने वाले गए बाद-ए-साज़गार के साथ खुले दरों से तलबगार ख़्वाब-गाहें मगर मैं जागता रहा इक ख़्वाब-हम-कनार के साथ कली खिली है सर-ए-शाख़ और ये कहती है कि कोई देखे तमन्ना-ए-ख़ुश-गवार के साथ वो मुझ को वो न लगा देखता सिसकता हुआ निगाह-ए-ज़र्द के साथ और दिल-ए-फ़िगार के साथ मदार-ए-वक़्त वो गुंजाइशें ज़रा फिर से कि पड़ रहें किसी दीवार-ए-साया-दार के साथ