अब्र बे-वज्ह नहीं दश्त के ऊपर आए इक दुआ और कि बारिश की दुआ बर आए आँख रखते हुए कुछ भी नहीं देखा हम ने वर्ना मंज़िल से हसीं राह में मंज़र आए कोई इम्कान कि जागे कभी लोहे का ज़मीर और क़ातिल की तरफ़ लौट के ख़ंजर आए आरज़ू थी कि शजर को समर-आवर देखूँ बौर पड़ते ही मगर सहन में पत्थर आए तुझ से दरिया तो गए चल के समुंदर की तरफ़ मुझ से क़तरे की तरफ़ उड़ के समुंदर आए आज़माइश हो शुजाअ'त की तो फिर ऐसे हो मैं अकेला हूँ मिरे सामने लश्कर आए कर दिया धूप ने जब शहर को सायों के सिपुर्द फिर तो दिन में भी कई रात के मंज़र आए