अब्र हर खेत पे हर राहगुज़र पर बरसे ग़म वो बरखा जो मिरी रूह के अंदर बरसे आई सावन की घटा घिर के मगर जम न सकी अश्क आँखों में उमँड आए तो शब भर बरसे बज़्म में उन पे हुई लाला-ओ-गुल की बारिश और मिरे सर पे जो बरसे भी तो पत्थर बरसे बीते सावन में ये मंज़र भी नज़र से गुज़रा सर-ए-बाज़ार जब ओलों की तरह सर बरसे अजनबी देस न था कूचा-ए-क़ातिल भी न था अपने ही शहर में 'आज़ाद' पे ख़ंजर बरसे