अँधेरे दिन की सफ़ारत को आए हैं अब के हैं कितनी रौशनियाँ इश्तिहार में शब के यहाँ तो देख लिए हम ने हौसले सब के मिले न दोस्त न दुश्मन ही अपने मंसब के बस एक बात पे नाकामियों ने घेर लिया ज़बाँ से आए लबों तक न हर्फ़ मतलब के जो लब-कुशादा थे वो मुद्दई' बने लेकिन जो दिल-कुशादा थे वो काम आ गए सब के इक आह-ए-ख़ुश्क ही अपने नसीब में निकली बहुत ही शोर सुने जज़्बा-ए-लबालब के जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं लेकिन इक ग़म-ए-हिज्र अजीब फूल से साथी बिखर गए अब के भटक रहा है दयार-ए-ख़िरद में क्यूँ ग़म-ए-दिल घरों को लौट चुके सारे बा-वफ़ा कब के ज़मीन-ए-सख़्त में लफ़्ज़ों के गुल खिलाए हैं ग़ज़ल कही तो हुए क़ाइल अपने कर्तब के हज़ार उस ने भी चक्कर दिए मगर 'बाक़र' रहे न हम भी कभी आसमान से दब के