अँधेरी शब है कहाँ रूठ कर वो जाएगा खुला रहेगा अगर दर तो लौट आएगा जो हो सके तो उसे ख़त ज़रूर लिखा कर तुझे वो मेरी तरह वर्ना भूल जाएगा बहुत दबीज़ हुई जा रही है गर्द-ए-मलाल न जाने कब ये धुलेगी वो कब रुलाएगा लगे हुए हैं निगाहों के हर जगह पहरे कहाँ मता-ए-सुकूँ जा के तू छुपाएगा उसे भी चाहिए इक जिस्म और मुझे पानी इसी लिए वो समुंदर मुझे बुलाएगा अभी ये शाम का मंज़र बहुत हसीं है 'शमीम' ढलेगी रात तो आ कर यही डराएगा