अधूरी ना-शुनीदा दास्ताँ हूँ कि शायद मैं समाअ'त पर गराँ हूँ ख़यालों में भी कुछ वाज़ेह नहीं है यक़ीं की गोद में पलता गुमाँ हूँ लब-ए-इज़हार चुप है मेरी ख़ातिर अभी हाँ और नहीं के दरमियाँ हूँ बुलंदी पर हवा ले जा रही है चराग़-ए-जिस्म से उठता धुआँ हूँ कशिश बाज़ार की रोके हुए है अभी मैं अपने घर पहुँचा कहाँ हूँ मुझे पाओगे दिल के पास हर दम जहाँ महसूस कर लोगे वहाँ हूँ मिरे अंदर है पोशीदा क़यामत कमाल-ए-ज़ब्त का इक इम्तिहाँ हूँ हुए 'एजाज़' बूढ़े तुम मगर मैं ख़ुदा के फ़ज़्ल से अब तक जवाँ हूँ