अफ़सोस बनी ही नहीं पहचान अभी तक हर अहल-ए-नज़र मुझ से है अंजान अभी तक सदियों के तग़य्युर से बनी सूरत-ए-इंसाँ इंसान नहीं है मगर इंसान अभी तक इल्हाम से इबहाम से ईहाम से छूटे कितने हैं ख़यालात परेशान अभी तक कितने ही खुले फ़हम-ओ-फ़रासत के दरीचे हैं क़ैद-ए-जहालत में हम इंसान अभी तक हैं दैर-ओ-हरम कुछ कि नहीं दैर-ओ-हरम कुछ ठहरा नहीं मेरा कहीं ईमान अभी तक हम अहल-ए-तज़बज़ुब का फ़साना भी अजब है काफ़िर ही बने हैं न मुसलमान अभी तक तस्कीन की सूरत कोई मिलती नहीं 'आज़म' मेरी निगह-ए-शौक़ है हैरान अभी तक