अफ़्शाँ चमक के ज़ुल्फ़-ए-दोता ही में रह गई कुछ रौशनी सी हो के सियाही में रह गई समझूँगा तुझ से रोज़-ए-क़यामत मैं ऐ जुनूँ गर कोई बात मेरी तबाही में रह गई आईं हज़ार-हा शब-ए-हिज्राँ में आफ़तें पर सुब्ह उस की इल्म-ए-इलाही में रह गई आ ही चुकी थी उस की अदा से बला मगर कुछ शर्म खा के शोख़-निगाही में रह गई 'नव्वाब' अपने दिल को मैं क्यूँ-कर निकालता कंघी उलझ के ज़ुल्फ़-ए-रसा ही में रह गई