गुज़रे तअ'ल्लुक़ात का अब वास्ता न दे गुम हो चुकी किताब जो उस का पता न दे अब तज़्किरे न छेड़ मिरे अहद-ए-शौक़ के जो बुझ गई है आग उसे फिर हवा न दे कुछ इस क़दर फ़रेब सहारों से खाए हैं मैं गिर पड़ूँगा ख़ौफ़ से तू आसरा न दे जिस की जबीन-ए-शौक़ पे लिक्खा था मेरा नाम अब दूर जा बसा है तू शायद भुला न दे शो'ला जो मौजज़न है मोहब्बत का दिल में आज डर है कि सरसर-ए-ग़म-ए-दौराँ बुझा न दे गो चल पड़ा हूँ दिल से मगर चाहता हूँ ये उठ कर मुझे वो रोक ले और रास्ता न दे ख़ाली न कोई दौलत-ए-इख़्लास से रहे 'अल्वी' किसी को भूल के ये बद-दुआ' न दे