अगर आशिक़ कोई पैदा न होता तो माशूक़ों का ये चर्चा न होता गरेबाँ चाक कर रोते कहाँ हम अगर ये दामन-ए-सहरा न होता सदा रहती तवक़्क़ो बुलबुलों को अगर ये ग़ुंचा-ए-गुल वा न होता जुदाई में अगर आँखें न रोतीं तो हरगिज़ राज़-ए-दिल इफ़शा न होता 'फ़ुग़ाँ' कौन अब ख़रीदार-ए-सुख़न था अगर ये हज़रत-ए-सौदा न होता