अगर दिला ग़म-ए-गेसू-ए-यार बढ़ जाता शब-ए-फ़िराक़ में और इंतिशार बढ़ जाता जो शौक़-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गान-ए-यार बढ़ जाता तिरा मज़ा ख़लिश-ए-नोक-ए-ख़ार बढ़ जाता जो मेरी चश्म के पर्दे शरीक हो जाते कमाल-ए-दामन-ए-अब्र-ए-बहार बढ़ जाता वतन में हम न हुए ख़ाक शुक्र की जा है ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-अहल-ए-दयार बढ़ जाता दिखाई क्यूँ न मुझे आ के गरमी-ए-रफ़्तार बला से आप की मेरा बुख़ार बढ़ जाता