अगर हम न थे ग़म उठाने के क़ाबिल तो क्यूँ होते दुनिया में आने के क़ाबिल करूँ चाक सीना तो सौ बार लेकिन नहीं दाग़ दिल ये दिखाने के क़ाबिल मिलें तुम से क्यूँकर रहे ही नहीं हम बुलाने के क़ाबिल न आने के क़ाबिल छुटे भी क़फ़स से तो किस काम के हैं नहीं जब चमन तक भी जाने के क़ाबिल ब-जुज़ उस के थे ख़ाक पहले भी ऐ चर्ख़ न थे ख़ाक में फिर मिलाने के क़ाबिल किया तर्क-ए-दुनिया मैं जब तो ये समझे कि दुनिया नहीं दिल लगाने के क़ाबिल वो आए दम-ए-नज़अ' क्या कह सकें नहीं होंट तक भी हिलाने के क़ाबिल ख़ुदाया ये रंज और ये ना-सुबूरी न थे हम तो इस आज़माने के क़ाबिल रहे हम न कुछ मुस्तफ़ा-ख़ाँ के ग़म में न फ़िक्र-ए-सुख़न ने पढ़ाने के क़ाबिल न छोड़ेंगे महबूब-ए-इलाही के दर को नहीं गो हम इस आस्ताने के क़ाबिल हमें क़ैद करने से क्या नफ़अ' सय्याद न थे दाम में हम तो लाने के क़ाबिल न बाल मुनक़्क़श न पर-हा-ए-रंगीं न आवाज़-ए-ख़ुश के सुनाने के क़ाबिल हुए हैं वो ना-क़ाबिलों में शुमार अब जिन्हें मानते थे ज़माने के क़ाबिल वो 'आज़ुर्दा' जो ख़ुश-बयाँ थे नहीं अब इशारे से भी कुछ बताने के क़ाबिल