अगर किसी ने बदन का सुकून पाया है वो शख़्स रूह की तारीकियों में उलझा है ख़याल है कोई मेरी तलाश में ही न हो तिलिस्म-ए-शब किसी आवाज़-ए-पा से टूटा है ये किस की चाप दर-ए-दिल पे रोज़ सुनता हूँ ये किस का ध्यान मुझे रात-भर सताता है कुछ इस तरह से मुक़य्यद हूँ अपनी हस्ती में कि जैसे मैं हूँ फ़क़त मैं हूँ और दुनिया है तुम्हारे ग़म में कोई आँख नम नहीं होगी हवा के कर्ब का एहसास किस को होता है ये कौन ज़ेहन में चुपके से रोज़ आ के 'नियाज़' सुकून-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र पाएमाल करता है