अगर मजबूर हफ़्त-अफ़्लाक होता हमारी तरह तू भी ख़ाक होता ज़मीं तारीक रहती और सूरज हमारे जिस्म की पोशाक होता कहीं इस दास्ताँ और ख़्वाब के बीच तिरा मल्बूस गुल भी चाक होता हम अपना फ़ाएदा भी सोच लेते अगर नुक़सान का इदराक होता ज़रा मौसम बदलता और फिर तो हमारे हिज्र में नमनाक होता