अगर न दर्द से इस दिल को आश्ना करते ग़म-ए-हयात का किस तरह तजज़िया करते ख़ुदा-न-ख़्वास्ता कश्ती जो डूबने लगती सिवा ख़ुदा के भला क्या ये नाख़ुदा करते अजब नहीं था कि आ जाता होश में बीमार क़रीब आ के जो दामन से वो हवा करते कटी तसव्वुर-ए-हूरान-ए-ख़ुल्द में जिन की हमारे उन के भला क्या वो तसफ़िया करते हम ऐसे रिंद पस-ए-मर्ग भी वहाँ जाते न पीना जुर्म हो हुकमन जहाँ पिया करते सख़ी के सामने फैले हुए हैं जिन के हाथ हम ऐसे लोगों से क्या अर्ज़-ए-मुद्दआ करते ये दर्द-ए-दिल तो है इस ज़िंदगी का मुतरादिफ़ मरज़ अगर कोई होता तो कुछ दवा करते न होते दिल से जो मजबूर कर के तर्क-ए-वफ़ा उसे भी हम ज़रा तड़पा के तजरबा करते तुनक-मिज़ाजी-ए-ख़ूबाँ का गर पता होता मनाते फिर उन्हें पहले तो हम ख़फ़ा करते गए हैं दैर-ओ-हरम हो के ला-मकाँ की तरफ़ क़याम रहरव-ए-मंज़िल यूँ जा-ब-जा करते उठाया मस्लहतन हम ने ख़ून का दा'वा किसी की आँख सर-ए-हश्र नीची क्या करते न पास-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम अगर हमें होता इलाज तेरा भी ऐ देव-ए-इश्तिहा करते न होती अपने पराए की फिर हमें तमईज़ दग़ा न मिल के अगर यार आश्ना करते नियाज़-ओ-नाज़ न यूँ होते लाज़िम-ओ-मलज़ूम न यूँ किसी के इशारों पे हम चला करते दरून-ए-दिल की सदा है मगर ग़ज़ल 'माहिर' कि शेर शेर पे सामेअ' हैं वाह-वा करते