अगरचे ज़ेहन के कश्कोल से छलक रहे थे ख़याल शेर में ढलते हुए झिजक रहे थे कोई जवाब न सूरज में था न चाँद के पास मिरे सवाल सर-ए-आसमाँ चमक रहे थे न जाने किस के क़दम चूमने की हसरत में तमाम रास्ते दिल की तरह धड़क रहे थे किसी से ज़ेहन जो मिलता तो गुफ़्तुगू करते हुजूम-ए-शहर में तन्हा थे हम, भटक रहे थे ये उस ने देखा था इक रक़्स-ए-ना-तमाम के ब'अद वुफ़ूर-ए-शौक़ में कौन-ओ-मकाँ थिरक रहे थे किताब-ए-उम्र-ए-गुज़िश्ता के हाशियों में 'नबील' वो शोर था कि ज़मीं आसमाँ धमक रहे थे