अगरचे पार काग़ज़ की कभी कश्ती नहीं जाती मगर अपनी ये मजबूरी कि ख़ुश-फ़हमी नहीं जाती ख़ुदा जाने गिरेबाँ किस के हैं और हाथ किस के हैं अंधेरे में किसी की शक्ल पहचानी नहीं जाती मिरी ख़्वाहिश है दुनिया को भी अपने साथ ले आऊँ बुलंदी की तरफ़ लेकिन कभी पस्ती नहीं जाती ख़यालों में हमेशा उस ग़ज़ल को गुनगुनाता हूँ कि जो काग़ज़ के चेहरे पर कभी लिक्खी नहीं जाती वही रस्ते वही रौनक़ वही हैं आम से चेहरे 'नवेद' आँखों की लेकिन फिर भी हैरानी नहीं जाती