अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था तिरी जबीं से निकलता हुआ सवेरा था पहुँच सका न मैं बर-वक़्त अपनी मंज़िल पर कि रास्ते में मुझे रहबरों ने घेरा था तिरी निगाह ने थोड़ी सी रौशनी कर दी वगर्ना अर्सा-ए-कौनैन में अँधेरा था ये काएनात और इतनी शराब-आलूदा किसी ने अपना ख़ुमार-ए-नज़र बिखेरा था सितारे करते हैं अब उस गली के गिर्द तवाफ़ जहाँ 'अदम' मिरे महबूब का बसेरा था